19.3.09

आदतसी हो गई है क़दमोको उन गलीकी
सांसोमें बस गईथी खुश्बुसी उस कलीकी


देखे नही है अब तक़, दो चांद दूजके यूं
खाउं में क़समें तेरी आंखे दो अधखुलीकी


सपनोमे, धडकनोमे, सांसोमें और दिलमें
तितलीभी जान पाये ना चाल मनचलीकी


रंगी हुईथी अपने ही पि’ के रंगमे, पर
कुछ भी असर ना पाई, राधामें सांवलीकी


मे पी रहा हुं लेकर, अपनेही ग़मको, फीरभी
बू आ रही है यारों तुमसे क्युं दिल जलीकी


ऐ मोत तुं खडीथी कोनेमें चूपके हंसती
हम खाक छानतेथे अपनीही कुंडलीकी

1 comment:

Anonymous said...

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