17.3.08


ग़रीबकी होली....

कैसे मनाउं होली
खुदकी नही एक खोली
फीका है दामन हमारा
रंग ही से आंख मिचोली
कैसे मनाउ होली….

पहेली किरनसे में न्हाउ
धूंदोसे खुदको संवारुं
दर्पन नही हे युंही बस
पहेनु दुखोकी चोली
कैसे मनाउं होली….

राशनका ना कोई मसला
जो था वो बच्चोंमे फिसला
आया में खाकर, बहाने
भुख नही वो भी बोली
कैसे मनाउं होली….

करवट बदलकर ही सोये
मन ही मे मन ही मे रोये
निंदो से नाता जो तुटा
चाहे दो कितनी भी गोली
कैसे मनाउं होली….

खूब जमाकरके खेलो
हमरी भी किस्मतको लेलो
हम तो चले अब जहांसे
खुदकी उठाकर के डोली
कैसे मनाउं होली….
A TRIBUTE TO SO CALLED
MERAA BHAARAT MAHAAN

1 comment:

रज़िया "राज़" said...

Bahot sundar Dr.sahab..
ham bhi aapki kavita me kuchh jodden...
KHUN-PASINA BAHAKAR AAI,
THODE PAISE KAMAKAR AAI,
MA KI MAMTA KO TO DEKHO,
GOD MEN BACHCHO KO LE RO LEE.
KAISE KHELE VO BHI HOLI?