13.4.11

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क़यामत कभी गुनगुनाती नही है
कभी दे के दस्तक़ बुलाती नहीं है

ज़हर बेवफाईका रास आ गया है
हमे ख़ा म खा तुं पीलाती नहीं है

सताया चमनने हमे ईस क़दर कि
ये विरानीया अब रूलाती नहीं है

शहरकी ये गलियां अभी तक़ तुम्हारी
मेरे दिलके टुकडे उठाती नहीं है

चलो अब में ख़ुदकी ही अरथी उठा लुं
नज़र सख्सियत कोई आती नहीं है

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